फितरते दुनिया

राहों को न बदल तू मामूली तकरार के लिये
इक उमर भी कम पडेगी इस प्यार के लिये
चाहे तो एक बार में इस दिल को तोड दे
लेकिन जगह नही है इसमें दरारों के लिये

तूने तो आज मेरे भ्रम की जंजीर तोड दी
मैंने भी अब तुझसे कोई उम्मीद छोड दी
इस घर में तो बस मैं तेरी बजह से था
अब इस में क्यों रहूं मैं सिर्फ दीवारों के लिये

हालात बदलने से रिश्ता बदलने वाले
क्या नाम दूं मैं तुझको
शफ़ाखाने में भी जगह नही क्या
अब बीमारों के लिये

जमाने की फितरतों को पह्चानता हूं मैं
क्या गुल खिलायेगा ये जानता हूं मै
तुझको भी खबर होगी, बहुत देर से मगर
बस इक "ना" ही बनी है यहां तलबगारों के लिये

4 comments:

श्रद्धा जैन said...

haan rishton ko badalna aasan nahi hai aapki baat sach kahi hai mhinder ji
aur aaj apako pahli baar padhna aur samjhna bhaut achha laga

aapki likhne ki kala dil ko chhu gayi

रंजू भाटिया said...

जमाने की फितरतों को पह्चानता हूं मैं
क्या गुल खिलायेगा ये जानता हूं मै
तुझको भी खबर होगी, बहुत देर से मगर
बस इक "ना" ही बनी है यहां तलबगारों के लिये

wah bahut khoob ...

Anonymous said...

कुछ नया नही है . सुनता हूँ हर इंसान की ज़िंदगी अपने आप में अलग है . जब वही अलग ज़िंदगी दिखती है तो अच्छा लगता है . वरना दुख होता है . इन बेतुकी टुक़बंदियों को पढ़कर . ..
अरविंद , बजार

गीता पंडित said...

राहों को न बदल तू मामूली तकरार के लिये
इक उमर भी कम पडेगी इस प्यार के लिये
चाहे तो एक बार में इस दिल को तोड दे
लेकिन जगह नही है इसमें दरारों के लिये
waah.......
bahut khoob.......