अर्श पर है लिखी जाती
तामील हर फसाने की
हम तुम तो बस यूंही
अपने अपने किरदार निभाते हैं
मिलना और बिछुडना तो
इक वक्ती गर्दिश है
जिन्दगी में अकसर यूंहीं
खुशी और गम के सैलाब आते हैं
मंज़िल को सामने पा कर भी
मुनासिब है जज़बात काबू में रखना
अक्सर लबों के पास तक आकर
लबरेज़ पैमाने छलक जाते हैं
न जाने कब एक चिन्गारी
भडक कर बन जाये एक शोला
यादों के जख्म हमेशा हरे ही रह्ते हैं
चाहे वो बाहर से भर जाते हैं
2 comments:
अच्छे भाव लगे. अब अगर गज़ल कहें तो फिर थोड़ा ध्यान भी दें. वरना यह नज़्म अच्छी लगी
बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती
Post a Comment