आरम्भ व्यंग है... अ‍ंत जीवन का सार



कालीदास को पढा नहीं‍,
न तुलसी की ली थाह
उठा कलम बस लिख डाला
अपना मन प्रवाह

नहीं किसी के चट्टे बट्टे
अपनी अलग है थैली
लिखते हैं हम मन की बातें
अपनी अलग है शैली

जमती नहीं किसी के दिल को
कोई तुकबन्दी कहता
कोई विधा शिल्प की बात करे है
किन्तु "मोहिन्दर" मस्त है रहता

इस मस्ती मे‍ भंग पडा जब
इक दिन पत्नी बोलीं
बंद करो यह लिखना विखना
बंद करो यह ठिठोली

बहुत कर लिया इस जीवन में
अब आगे की तुम सोचो
मत खिसयानी बिल्ली बन कर
साहित्य के तुम खम्बे नोचो

मै बोला, क्या करना है प्रिय
कुछ ठोस प्रयोजन हो तो बतलाओ
वरना खाली पीली
न मेरा भेजा खाओ

वो बोलीं रीमा, शीला, गीता, बबली
सबने सपति गुरु को धारा है
गुरु बिना मुक्ति नही‍ मिलती
क्या विचार तुम्हारा है

विषय गम्भीर था, मै‍ अधीर था
नींद उडी थी, प्रश्न उमढ रहे थे
अन्त में सब प्रभू पर डाल
सो गया थक कर मै‍ निढाल

सोये सोये चमत्कार हो गया
हृदय में जैसे प्रभू-अवतार हो गया
बोले प्रभू, मुझे सब ज्ञान है
प्रश्नों का तेरे सरल निदान है

सच है, गुरु बिना मुक्ति नहीं
यह कोई झूठी सूक्ति नहीं
गुरु से मिलता सच्चा ज्ञान
सोने सा सच है, बात ले मान

पहले गुरु तो मात पिता हैं
दूजे गुरु बाल सखा हैं
तीजे से मिलता अक्षर ज्ञान
पर यह सब स्थूल ज्ञान है
आत्मा बिना, जैसे शरीर मृत समान है

समझो जैसे बिन मथा दहीं हो
मक्खन जिसमें छुपा कहीं हो
स्थूल ज्ञान को विवेक की मथनी से मथ डालो
सूक्षम ज्ञान का सार निकालो

मुक्ति का बस एक आधार है
मूल भावनाओं का करो सम्मान
पीडायें सबकी समझो एक समान
ऐसा रखो वाक व्यवहार
न हो किसी के मन पर प्रहार

विवेक एक अनमोल पूँजी है
ज्ञान की समझो स्वर्ण कूँजी है
विवेक हर जुम्बिश तोलता है
फिर धीरे से कुछ बोलता है
कान लगा कर उसकी सुन
भक्ति जैसी हो तेरी धुन

तनिक सुध यदि तू रख पायेगा
जीवन सुधा को पा जायेगा
बुरा ना सोचेगा फिर कभी भी
बुरा ना तू फिर कर पायेगा
सब कष्टों का कर यहीं निवेडा
भव सागर से तर जायेगा

यह कह हुये प्रभू अन्तर्ध्यान

जो कुछ मेरी मूढ मति मे‍ आया
उसका बस सार यही है
ज्ञान दिशा है
विवेक गुरु है
आत्मा - एक स्वर, एक प्रकाश है
सब कोई खोजे‍ उस गुरु को बाहर
जिसका शरीर के भीतर निवास है

5 comments:

Udan Tashtari said...

अच्छा लिखा है मोहिन्दर. पूरे प्रवाह के साथ गहरी रचना है, बधाई.

Unknown said...

अच्छा लगा पढ़कर....एक विचार सार की तरफ...!!

शैलेश भारतवासी said...

यद्यपि कविता में ठीक-ठाक प्रवाह है फ़िर भी कई जगह मेरे जैसा नया खिलाड़ी भी कमियाँ निकाल सकता है-

जैसे-

१)
मै बोला, क्या करना है प्रिय
कोई ठोस प्रयोजन हो तो बतलाओ
वरना खाली पीली न मेरा भेजा खाओ

(यह कोई आवश्यक नहीं, लयांत ४ पदों के साथ ही पूरा हो)


२)
सोये सोये चमत्कार हो गया
हृदय में जैसे प्रभु-अवतार हो गया (या हृदय में प्रभु-अवतार हो गया)
प्रभो बोले, मुझे सब ज्ञान है
प्रश्नों का तेरे सरल निदान है

आपने लिखा है बोले प्रभो, लगता है जैसे प्रभु से बोलने का निवेदन कर रहे हैं जबकि कविता के अनुसार प्रभो खुद बोल रहे हैं।

३)
पहले गुरु तो माता-पिता हैं
दूजे गुरु बाल सखा हैं
तीजे से मिलता अक्षर ज्ञान
पर यह सब स्थूल ज्ञान है
आत्मा बिन, शरीर मृत समान है

और कई अन्य पदों में काँट-छाँट राकेश खंडेलवाल जैसे वरिष्ठ कवियों से कराइए।

krishnshankar said...

प्रिय मोहिन्दर जी
लिखा अच्छा है।कविता मन का प्रवाह अवश्य होती है लेकिन इस प्रवाह को बनाये रखने के लिए
भाषा का होना जरूरी है।आप ज़रा भाषा पर गौर करें बाकी सब ठीक है। करत.करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान । कोई भी पहले से सुजान नहीं होता । अतः नो टेंशन ।
-.कृष्णशकर सोनाने

Reetesh Gupta said...

तनिक सुध यदि तू रख पायेगा
जीवन सुधा को पा जायेगा
बुरा ना सोचेगा फिर कभी भी
बुरा ना तू फिर कर पायेगा
सब कष्टों का कर यहीं निवेडा
भव सागर से तर जायेगा

बहुत खूब ...मन की सच्ची भावनायें हैं