पीडा, पीडा में अन्तर अगम है
एक उदर की पीडा है
निरन्तर झक कर खाने से
एक उदर की पीडा है
भूख से त्रस्त
आंतडियों के कुलबुलाने से
वो पीडा झलकाती है
लालसा लार टपकाने की
यह पीडा कहराती हो जैसे
दीप में तेल के बाद
बाती तक जल जाने से
पीडा, पीडा में अन्तर अगम है
कुछ पीडायें प्राकृतिक है
जिन को समय ने खडा किया है
परन्तु अधिकतर ऐसी हैं
जिन्हे हम ने स्वंय
पाल पोस कर बडा किया है
प्रकृति में तो देखा था
विषधर विषधर को लीलता है
यहां भी कुछ बडे मगर हैं
जो जबडा फैलाये हैं
कुछ की तौद तो फूल रही है
कुछ चेहरे कुम्हलाये हैं
पीडा, पीडा में अन्तर अगम है
जिस धरती पर
भूख गरीबी पनप रही है
वहीं लाखों टन अनाज
गोदामों में सड जाता है
गिरते को अबलम्बन कौन दे
एक राष्ट्र अपनी पताका फहराने को
मासूमों पर बम बरसाता है
पीडा, पीडा में अन्तर अगम है
हमें ही चिन्हित करना है
कौन है दोषी यदि
हर मानव के पेट में अन्न नही है
हर पांव में नही है जूता
क्यों कोई पटडी पर है लेटा
क़्यों इतने हाथ पसर रहे हैं
क्यों हैं इतने दुखियारे
किसने है सारा सुख समेटा
पीडा, पीडा में अन्तर अगम है
1 comment:
समाजिक असमानता को कविता के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है।बधाई।
हमें ही चिन्हित करना है
कौन है दोषी यदि
हर मानव के पेट में अन्न नही है
हर पांव में नही है जूता
क्यों कोई पटडी पर है लेटा
क़्यों इतने हाथ पसर रहे हैं
क्यों हैं इतने दुखियारे
किसने है सारा सुख समेटा
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