किस से करें उम्मीद

वो खुद ही, दासता की सांकल की, कडी निकले
जिन्हें आजादी के बिगुल बजाने थे

उनके हाथों में, खुदगर्जी की बेडियां थी लगी
जिन्हें आवाम की उम्मीदों के परचम लहराने थे

उनके दिलों को नहीं था औरों के दर्द का अहसास
जिन्हें अहम दिमागी फ़ैसले सुनाने थे

कोई लुट गया लोगों की भीड के बीचों बीच
फ़र्ज नपा ही नहीं, सबके अलग अलग पैमाने थे

खबरों की भीड में सिर्फ एक निठारी ही उछला
देश में न जाने ऐसे दरिन्दों के, कितने ठिकाने थे

जिसे कभी कंजक, कभी देवी समझ कर पूजा
भ्रूण में उसे मिटाने के, न जाने, क्या क्या बहाने थे

दब गया कोई उसी शहतीर के नीचे आकर
कुल(तमाम)बोझ आशियाने के जिसे उठाने थे

आज का समा देख कर यह लगता है
जो मिट गये फर्ज की खातिर,
या तो पागल थे, या कोई दीवाने थे

3 comments:

SahityaShilpi said...

दब गया कोई उसी शहतीर के नीचे आकर
कुल बोझ आशियाने के जिसे उठाने थे

बहुत खूबसूरत! कुछ चीजें हर बार पढ़ने पर और भी अच्छी लगने लगतीं हैं और आपकी यह गज़ल भी उन्हीं में से एक है.

- अजय यादव
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Udan Tashtari said...

बढ़िया है मोहिन्दर भाई..जारी रहो..

राजीव तनेजा said...

सामाजिक कुरीतियों पर सटीक प्रहार करती शानदार कविता....

बधाई स्वीकार करें....