सोचो तो

संगमरमर की कब्रें
मट्टी के बसेरे हैं
कहो ताज मुहब्बत है
या मुहब्बत से घर है

फ़ूलों की वादी में
जख्मों के मेले हैं
इन्सान के सिर पर
किस जुनूं का असर है

रोने के सबब आसान
हंसने की तलब गायब
हर ताल्लुक में दरारें हैं
हर रिश्ता बेदर है

किस जानिब मंजिल है
किस और से राहे हैं
राहनुमा की हालत तो
मुसाफ़िर से बदतर है

सोचो तो

न हर रात काली
न हर सुबह रोशन
रंग बदलते पलों का
नाम मुक्कदर है

4 comments:

mehek said...

सोचो तो

न हर रात काली
न हर सुबह रोशन
रंग बदलते पलों का
नाम मुक्कदर है
bahut sahi,bahut khub yahi mukadar hai.

शोभा said...

न हर रात काली
न हर सुबह रोशन
रंग बदलते पलों का
नाम मुक्कदर है
मोहिन्दर जी, एकदम सही लिखा है।

Advocate Rashmi saurana said...

bhut khub. likhate rhe.

Udan Tashtari said...

बढिया..आजकल बहुत कम लिखा पढ़ा जा रहा है.