आदमी को जिन्दगी से उम्र भर शिकवा रहा
सांसें थी मजबूर लेकिन सिलसिला चलता रहा
सोचा न सारी खुशियां किस की रहमत से हैं
दिल में मायूसियों का शिकवा गिला पलता रहा
सारी दुनिया हो फ़ूल सी बस यही ख्वाहिश रही
और कानों में खुद के अपने शीशा ही ढलता रहा
क्या सोच कर तुमने चढाया ख्वाबों को चांद पर
और फ़िर हर रात दिन इक साया बन जलता रहा
बेहोशी में था जब वो होश की बातें करता था शक्स
जाने किस किस आस में वो खुद को ही छलता रहा
2 comments:
सुंदर लगी आपकी यह रचना .विशेष कर आखिरी ...
बेहोशी में था जब वो होश की बातें करता था शख्स
जाने किस किस आस में वो खुद को ही छलता रहा
"very beautiful creation to read"
Regards
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