मुखौटा

डार्विन का "विकास सिद्धान्त" बतलाता है
जो शारीरिक बदलाव जीवन के लिये
महत्वपूर्ण व आवश्यक हैं
उन्हें प्रकृति द्वारा
आने वाली नसलों के लिये
अपने आप सहेजा जाता है
शायद ये "मुखौटा"
मैंने अपने पूर्वजों से पाया है
क्योंकि इसे मैने स्वंय नहीं बनाया है

जैसे सर्दी के लिये रजाई लिहाफ़
मैले तकिये के लिये साफ़ गिलाफ़
साधारण चेहरे को उत्कर्ष बनाते प्रसाधन
बुराइयों को छुपाते बल और धन
क्या हुआ अगर ओढ़ लेता हूं "मुखौटा"
यदा कदा मैं भी
अनजाने लोगों का प्यार सत्कार
अपनों के दिल में उठती दीवार
और गले मिल भोंकते जो कटार
उन सब के दिलों का मर्म जानने के लिये
क्या है ऐसे में मेरा धर्म जानने के लिये


जैसे को तैसा
या
नेकी कर कुएँ में डाल
निर्णय करने में
मुखौटा बड़ा काम आता है
अपनी छुपा कर
औरों के दिल की थाह पाता है...
इसीलिये इसे छोड़ नहीं पाता हूं
कुछ पाने की चाह का मूल्य
अपनी पहचान गंवा कर चुकाता हूं
हां, यदा-कदा मैं भी मुखौटा लगाता हूं

4 comments:

रंजू भाटिया said...

हम सभी एक मुखोटे को पहने हैं ..बहुत सुन्दर लगी आपकी यह रचना आपके अंदाज़ से जरा हट के है ..पसंद आई

Udan Tashtari said...

यदा कदा क्या-अक्सर ही मुखौटा लगता हूँ वरना तो खुद ही खुद से डर कर जी न सकें.

संगीता पुरी said...

सही है ... हर कोई एक मुखौटे को लगाए है ... अच्‍छी रचना।

Anonymous said...

ek mukhota hame bhi dila de kaam aayega