जर्रा-ए-खाक हूं, हवा से परवाजें
मत पूछिये मुझ से ठिकाना मेरा
ओस भिगोये धूप जलाती बदन
न सिर्फ़ चमन, हर वीराना मेरा
न तो हस्ती. न कोई बस्ती मेरी
बस यह गुमान कि जमाना मेरा
तेरे किसी काबिल नहीं बजूद मेरा
फ़ासले तुझ से सिर्फ़ बहाना मेरा
कोई दहलीज नहीं किस्मत में मेरी
सफ़र की गर्दिशें है आशियाना मेरा
जर्रा-ए-खाक हूं, हवा से परवाजें
मत पूछिये मुझ से ठिकाना मेरा
5 comments:
waah ...bahut khoob ....mujhe bahut achchhi lagi
अच्छी रचना है
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तख़लीक़-ए-नज़र । चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें । तकनीक दृष्टा
बहुत ही उम्दा रचना है...!उर्दू का ज्यादा प्रयोग खटकता है..
एक उम्दा रचना.
सुन्दर भावाव्यक्ति.
अच्छी रचना.
बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
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