"धीमन की नौका"



वृक्ष था जब मैं
जड था
गति लुभाती मुझको
सोचा करता
काश होता मैं भी
चलायमान
क्या है नदी के
इस धारे से
उस धारे तक
मैं भी जाता जान.

सुना है लोगों को कहते
तीव्र मनोइच्छा कोई भी हो
कालान्तर में
देवयोग से
पूर्ण हो जाती है

कौन जाने यह क्या था
मेरी इच्छा की पूर्ति
मेरे जडपन का अंत
अथवा
आकारण इच्छा का दण्ड

चली आरी कुल्हाडी मुझ पर
जड से जडपन से
टूटा नाता
खण्ड खण्ड हुआ
बचा जो कुछ वह थी
छीलन और टूटन

तना रहता जो तना था
आरे पर जा कर
तख्तों में हुआ विभाजित
इक कौने में पडा हुआ मैं
था मन से पीडित और पराजित

फ़िर इक दिन
समय ने करवट बदली
आरे से
मिस्त्री के अड्डे तक आया
सधे हाथों ने
काट पीट कर
छील छाल कर
जोड तोड कर
एक्दम बदल दी मेरी काया

फ़िर रंग रोगन से लीपा पोती
और मेरा श्रृंगार हुआ
अब बेनाम नहीं
इक नाम मिला
"धीमन की नौका"
आकार बदल कर मुझे मिला
वरदान गति का
और इच्छित
नदिया तक जाने का मौका

3 comments:

रंजना said...

वाह ! वाह ! वाह !
अतिसुन्दर !!

कल्पना और अभिव्यक्ति दोनों लाजवाब हैं...वाह !
गहन अर्थपूर्ण चिंतन है यह तो.

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर रचना:

’धीमन की नौका’

-बेहतरीन कल्पनाशीलता. बधाई.

Anonymous said...

wow

nice nauka