जो नजर आता नहीं
क्या वो सब गौण हैं
मंच की मर्यादा
निर्भर इस पर
नैथप्य में कौन हैं
सींचता है बाली बाली
अपने पसीने खून से
शीत, ग्रीष्म से लडता
और बेरुखे मौनसून से
घर भरते बिचोलियों के
होता हर दर साल है
किसान के हिस्से दाने कहां
आता सिर्फ़ पुआल है
खाद और बीज का उल्टा
चढता उस पर "लोन" है
शहरी करण की होड में
खेत बिकते जा रहे
लहलहाती फ़सलों के बदले
कंकरीट के जंगल छा रहे
ठंठे ठंठे झोंके कहां अब
बाग और बगीचे बदल कर
हो रहे "वार्मिंग-जोन" हैं
क्यूं दबें हैं स्वर समूचे
वाद्यों की थाप में
ताल क्यूं बेताल हुई
घुट कर अपने आप में
और इस पर देखिये
श्रोता बैठे मौन हैं
7 comments:
nice
nice
बहुत बढ़िया
शानदार
बहुत खूबसूरत
बहुत खूब कहा महेन्द्र जी!!
वाह बहुत खुब जी
आज की ज्वलन्त समस्या पर सटीक लिखा है।
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