जय पराजय

पराजय से परहेज कैसा
यहां कौन पराजित नहीं
चट्टानों से टकरा लौटती लहरें
किनारों में बंध बहते जल स्त्रोत
सागर में विलीन होती नदियां
समय के क्रूर प्रहार से रेत होती चट्टानें
पर्वतों से टकरा लौटते झंझावत
आकाश के सामने नत मस्तक पर्वत
और तो और
सौर मंडल में मात्र बिन्दू भर यह धरा
प्रत्येक अंश किसी महाअंश से बौना है
सिंह भी धूल चाटते हैं जीवन द्वंद में
जय परिभाषित हो सकती एक छंद में
पराजय का कण कण से नाता है
पराजय से सीख ले
जय पर न अभिमान कर
जीवन को न रुदन बना
जीवन को एक गान कर

2 comments:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

sach hai, haar se haarna nahi hai ... angreji mein ek kahawat hai ... failure is the stepping stone to success.

निर्मला कपिला said...

प्रेरणा देती पँक्तियाँ-- पराजय से सीख और जीत पर न हो अभिमान। बधाई इस रचना के लिये।