स्वप्न मेरे

स्वप्न मेरे
आश्रित नहीं
नैनों के
नींद के
रात के
यह पलते हैं
दिल के किसी कोने में
और बहते हैं
लहू की हर बूंद के साथ
असीमित प्रवाह लिये
बिन पंखों के उडते फ़िरते हैं
क्षितिज के उस पार तक
अन्तरिक्ष को खंखालते
कभी डूबते उतराते
सागर की गहराईयों में
 स्वप्न मेरे
आश्रित नहीं
नैनों के
नींद के
रात के

6 comments:

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

yahi swapn to jeevan ko sarvochch shikhar dete hain ..
bahut sundar...

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi achhi rachna

अनुपमा पाठक said...

सुन्दर भाव...
सार्थक स्वप्न!

vandana gupta said...

वाह! क्या बात कही है बहुत ही सुन्दर्।

वाणी गीत said...

स्वप्न मेरे आश्रित नहीं नैन के , नींद के ...
जगती आँखों के सपनों की कविता अच्छी लगी !

Dorothy said...

दिल को छूने वाली खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.