कंगन लिये फ़िरता हूं

कंगन लिये फ़िरता हूं
कलाई तलाशता हूं
प्यास लिये होठों पर
सुराही तलाशता हूं

जिन आंखों मे कहीं
खो जाते हैं उजाले
उन्हीं आंखों में मैं
विनाई तलाशता हूं

सब देखते हैं हाथों में
मुक्कदर की लकीरें
मैं थके हारे पांवों में
बिबाई तलाशता हूं

सब ढूंढते फ़िरते हैं
चेहरों में तब्बसुम्म
मैं दिलों में बसी
सफ़ाई तलाशता हूं

मंजिल के लिये है
बेहद बेताव जमाना
इस भीड में मैं अपनी
परछाईं तलाशता हूं

कंगन लिये फ़िरता हूं
कलाई तलाशता हूं
प्यास लिये होठों पर
सुराही तलाशता हूं

3 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत एहसास ..

vandana gupta said...

वाह मोहिन्दर जी वाह …………कितनी खूबसूरत तलाश है ………शानदार अभिव्यक्ति।

dinesh aggarwal said...

अति सुन्दर......