आत्म मंथन जरूरी है


क्या है वह जो एक पल में

मानव को दानव बना देता है

आंखों पर पट्टी बांध कर

अक्ल पर पर्दा गिरा देता है



पल भर के उन्माद मे लिप्त हो

जीवन भर का किया धरा खो

तय की गई हदें पार करता है

निज स्वप्नों का संहार करता है



मानवता के सभी मुल्यों को भुला

नोचता है निरीह चिडिया के पंख

सालता रहता है जो जीवन भर

देता ऐसे गहरे घाव व विषैले दंश



भेडियों के झुंड का अध्याय बन

धुमिल कुल कीर्ति का प्रयाय बन

ऐसा कर जाने यह क्या पाते हैं

क्या तब अपने नहीं याद आते हैं



अपशब्द पर खून खौलता जिनका

अन्याय पर धीर डौलता जिनका

क्या यह उस भीड का नहीं हिस्सा

फ़िर किस लिये घटता यह किस्सा



किंचित हम सब स्वार्थी हो गये हैं

इस हवा के अभ्यार्थी हो गये हैं

कुछ दिनों तक एक राग गाते हैं

और फ़िर सब कुछ भूल जाते हैं



विवेक शून्यता तभी टूटती सब की

जब कुछ अप्रयाशित घटित होता है

हम हिस्सा हैं उसका पचा नहीं पाते हैं

सडकों पर उतर, भीड बन बसें जलाते हैं



क्या यह अपराधी हम में से एक नहीं

किसी घर का बेटा, किसी की टेक नहीं

हम जो भी संस्कार उसमें भर पाये हैं

वही आज हम सबके सामने आये हैं



समय गतिमान है

एक ही धूरी है

मेरा मानना है

बस जलाने से अधिक

आत्म मंथन जरूरी है



मोहिन्दर कुमार

2 comments:

Madan Mohan Saxena said...

बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति .

Anonymous said...

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