रूप रंग व श्रृंगार न होता
रूठन व मनुहार न होतातो हम भी बैरागी हो गये होते
चातक की प्यास न होती
मिलने की आस न होती
तो हम भी बैरागी हो गये होते
प्रीत के ये प्रसंग न होते
रिश्तो के अनुबन्ध न होतेतो हम भी बैरागी हो गये होते
फ़ूलों में रंग न होते
सपनों के पंख न होते
तो हम भी बैरागी हो गये होते
जिह्वा के स्वाद न होते
देह के अनुराग न होगे
तो हम भी बैरागी हो गये होते
मोहिंदर कुमार
1 comment:
What a brilliantly written poem it is! Very well written. Thanx
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