
साथ चलने से भला
कब मुझे इन्कार है
पर सोचता हूं
क्या तुम यथार्त से टकरा सकोगे
साथ मेरे तुम कहां तक आ सकोगे
जिन्दगी में कब
हर घडी फूल होंगे
तपती पथरीली राह होगी
दंश देते शूल होंगे
मर्म अपना क्या तुम छुपा सकोगे
साथ मेरे तुम कहां तक आ सकोगे
चांद तक फैले हैं
तुम्हारी चाह्तों के दायरे
मैं छुपाना चाहता हूं
मन की बात को
दूरियां ये क्या तुम सिमटा सकोगे
साथ मेरे तुम कहां तक आ सकोगे
मोहिन्दर
1 comment:
बहुत ख़ूब लिखा है आपने !!
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