मेरा बसंत



आज तक सींचते रहे
अपने प्यार के अमृत से
मुझ निर्जीव ठूंठ को तुम
और जब कौंपलें अंकुरित हुई हैं
तब छोडकर जाने लगे हो
कैसे रोकूं मैं तुम्हें
है नही तुम पर कुछ
अधिकार विशेष मेरा
परन्तु जाते जाते यह भी सुनलो
मुर्झा जायेंगी कौंपलें सब
जो तुम्हारे स्पर्श से पल्लवित हुई
केवल वही ठूंठ रह जायेगा
जो तुम्हारे आगमन से पूर्व था
क्योंकि तुम्हीं तो मेरा बसंत हो

मोहिन्दर

6 comments:

Divine India said...

वाह सर्…आपने जीवन के बसंत को सच में महसूस कर लिया है तभी भावनाएँ शिखर पर आवाज दे रही हैं…बहुत सुंदर!!!

Udan Tashtari said...

वाह, क्या बात कह गये, मोहिन्दर जी. दिल की बड़ी गहराई से निकली पंक्तियाँ हैं, बधाई.

--केवल वही ठूंठ रह जायेगा
जो तुम्हारे आगमन से पूर्व था
क्योंकि तुम्हीं तो मेरा बसंत हो.

--बहुत खूब.

रंजू भाटिया said...

वाह !!!क्या बात है मोहिंदर जी ...बहुत ही ख़ूबसूरत लिखा है ....

अनूप शुक्ल said...

बहुत खूब है! बसंत बड़ा लेट आया।

Reetesh Gupta said...

बहुत खूब ....बहुत अच्छा लगा पढ़कर ...बधाई

राजीव रंजन प्रसाद said...

मुर्झा जायेंगी कौंपलें सब
जो तुम्हारे स्पर्श से पल्लवित हुई
केवल वही ठूंठ रह जायेगा
जो तुम्हारे आगमन से पूर्व था
क्योंकि तुम्हीं तो मेरा बसंत हो

बहुत ही संवेदनशील कविता है मोहिन्दर जी।

*** राजीव रंजन प्रसाद