हकीकत की जमीँ

क्या बिगडता ज़माने का गर कुछ ख्वाव मेरे भी बर आये होते
और प्यार मेँ तुमने यह् तेज लफ्जोँ के नश्तर न चुभाये होते


वक्ते-पेमाइश उस शक्स का कद मेरे कद से पेशतर निकला
काश जजबात मेँ उसके पैर न मैने अपने काँधे पर टिकाये होते

वो कमजोर डाली जिसे सीँच और सहारा दे कर मैँने दरख्त किया
काश उस पेड का साया और कुछ फल मेरे हिस्से मेँ भी आये होते

मै अपने अरमानोँ और उम्मीदोँ से ही जिन्दगी की बाजी हार गया
काश अपने सपनो के महल मैने हकीकत की जमीँ पर बनाये होते

6 comments:

रंजू भाटिया said...

वो कमजोर डाली जिसे सीँच और सहारा दे कर मैँने दरख्त किया
काश उस पेड का साया और कुछ फल मेरे हिस्से मेँ भी आये होते

bahut khoob ji ..very nice words ...

राकेश खंडेलवाल said...

वो कमजोर डाली जिसे सीँच और सहारा दे कर मैँने दरख्त किया
काश उस पेड का साया और कुछ फल मेरे हिस्से मेँ भी आये होते

अच्छी पंक्तियां हैं मोहिन्दर भाई

वो शजर जिसको लहू से सींचते थे रात दिन
जब गिरे थे फ्होल उसके, सब पसे दीवार थे.

Udan Tashtari said...

इस सुंदर रचना के लिये बहुत बधाई.

Divine India said...

यह हुई न बात…बाकई मजा आ गया यह पढ़कर्…शब्दों और भाव का संगम अर्थ को मायने दे रहा है…।

महावीर said...

मोहिन्दर जी
बहुत अच्छी रचना है - भावों से ओत-प्रोत!
भई, एक और शेर लिख कर ग़ज़ल पूरी कर दीजिए। पांच अशा'र से ग़ज़ल पूरी हो जाएगी।

gita pandit said...

वो कमजोर डाली जिसे सीँच और सहारा दे कर मैँने दरख्त किया
काश उस पेड का साया और कुछ फल मेरे हिस्से मेँ भी आये होते
wah......
bahut khoob...
bahut khoobasoorat baat kahee hai...