कैनवास पर
दूर क्षितिज में
फ़ैली लालिमा
कौन जाने
सांझ ढली है
या हुई भौर है
डैने फ़ैलाये
विचर रहे पखेरू
कौन जाने
राह कौन सी
प्रवास नीड से
या नीड की और है
चित्र और पत्थर के पुतले
सज जाते है फ़ूलों से
जन्म दिन या
जयन्ती विशेष के दिन
और साल भर
धूल फ़ांकते
कल के दिगज्ज और
लोह क्रान्ति पुरुष
पड गये
आज कितने कमजोर हैं
जहर बेचते धर्म के नाम
मौत बेचते हैं बेदाम
जातिवाद पर देंगा करते
इंसानियत को नंगा करते
क्रान्ति आती है अपने खून से
भक्ती और प्रेम के जनून से
पहन मुखौटे जो आज खडे हैं
कातिल डाकू और चोर हैं
कालचक्र में
कहीं खो गये
दुर्लभ क्षण जो थे
इतिहास समेटे
बासी कढी का उफ़ान है
चहूं ओर आज जो मचा शौर है
8 comments:
अच्छी कविता है...बधाई...
वाह ! अतिसुन्दर..मर्मस्पर्शी........बहुत सही कहा है आपने.......
सुन्दर है यह आपकी रचना
" its beautiful..."
Regards
बहुत अच्छी कविता है ......बधाई।
good lines
regards
वाह! बहुत सुन्दर.बहुत उम्दा,बधाई.
बहुत अच्छी कविता है ......
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