उस बस्ती में बस दिल नहीं लगा मेरा
मकान कम थे, दुकान कुछ ज्यादा थी
करीबी रिश्तों में न आ जाये कोई दरार
जुबान करती, न बयान, कुछ ज्यादा थी
इक याद के सहारे कट गई उमर अपनी
वर्ना ये दौड, न आसान, कुछ ज्यादा थी
सजाते संवारते डूब गया सांसों का सूरज
जिंदगी बजूद कम सामान कुछ ज्यादा थी
राहे-दुनिया चल मंजिल मैं अपनी भूल गया
रूह मासूम, नजर बईमान, कुछ ज्यादा थी
6 comments:
इक याद के सहारे कट गई उमर अपनी
वर्ना ये दौड, न आसान, कुछ ज्यादा थी
"" बहुत सशक्त रचना, ये दो पंक्तियाँ इस रचना की जान हैं... यादो के सहारे एक उम्र का कटना... एक जीवित सच "
regards
bahut khub
इक याद के सहारे कट गई उमर अपनी
वर्ना ये दौड, न आसान, कुछ ज्यादा थी
bahut pasand aayi ye lines
सुंदर और भावपूर्ण रचना,
याद के सहारे.......
आपको बधाई इस सुंदर कृति के लिए
मोहिन्दर जी सशक्त रचना खासतौर पर ये दो पंक्तियां -इक याद के सहारे कट गई उमर अपनी
वर्ना ये दौड, न आसान, कुछ ज्यादा थी
kya baat hai sir ji.
itni acchi nazam kah di
इक याद के सहारे कट गई उमर अपनी
वर्ना ये दौड, न आसान, कुछ ज्यादा थी
wah wah , kya baat hai .
bahut badhai
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
बहुत ख़ूब, आपको एवं परिवार जनों को नये वर्ष की बधाई!
Post a Comment