मुखौटा


डार्विन का "विकास सिद्धान्त" बतलाता है
जो शारीरिक बदलाव जीवन के लिये
महत्वपूर्ण व आवश्यक हैं
उन्हें प्रकृति द्वारा
आने वाली नसलों के लिये
अपने आप सहेजा जाता है
शायद ये "मुखौटा"
मैंने अपने पूर्वजों से पाया है
क्योंकि इसे मैने स्वंय नहीं बनाया है

जैसे सर्दी के लिये रजाई लिहाफ़
मैले तकिये के लिये साफ़ गिलाफ़
साधारण चेहरे को उत्कर्ष बनाते प्रसाधन
बुराइयों को छुपाते बल और धन
क्या हुआ अगर ओढ़ लेता हूं "मुखौटा"
यदा कदा मैं भी
अनजाने लोगों का प्यार सत्कार
अपनों के दिल में उठती दीवार
और गले मिल भोंकते जो कटार
उन सब के दिलों का मर्म जानने के लिये
क्या है ऐसे में मेरा धर्म जानने के लिये
जैसे को तैसा
या
नेकी कर कुएँ में डाल
निर्णय करने में
मुखौटा बड़ा काम आता है
अपनी छुपा कर
औरों के दिल की थाह पाता है...
इसीलिये इसे छोड़ नहीं पाता हूं
कुछ पाने की चाह का मूल्य
अपनी पहचान गंवा कर चुकाता हूं
हां, यदा-कदा मैं भी मुखौटा लगाता हूं

11 comments:

OM KASHYAP said...

jankari deti badhiya kavita
aabhar

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

जीवन के सत्य को कहती अच्छी रचना ...सब मुखौटे ही लगाए रहते हैं

राज भाटिय़ा said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

शिवा said...

बहुत सुंदर रचना .. बाधाई
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ आकर बहुत अच्छा लगा .
कभी समय मिले तोhttp://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी आप अपने एक नज़र डालें . धन्यवाद् .

Unknown said...

Well Said Sir....

Udan Tashtari said...

वाह मोहिन्द्र भाई, बहुत ही बेजोड़ प्रस्तुति रही.

Anita said...

हम मुखौटा लगा कर मिलेंगे तो मुखौटों से ही मिलना होगा कभी उतार के मिलें तो जिंदगी से मुलाकात होगी !

Dr (Miss) Sharad Singh said...

जीवन दर्शन से परिपूर्ण सुंदर रचना के लिए बधाई।

Amit Tiwari said...

वाह...मोहिंदर जी... जीवन के यथार्थ को सामने रख दिया आपने..
कभी हमने भी ऐसा ही कुछ लिखने की कोशिश की थी..
'सवाल महज नकाब का होता, तो कब का उतर गया होता.. अब तो ये चेहरा खुद ही नकाब है मेरा... '

Dr (Miss) Sharad Singh said...

मुखौटे के माध्यम से जीवन की सच्चाई बयान करती कविता हेतु बधाई।